इतिहास
सीतापुर अपनी पौराणिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कारण भारत में प्रसिद्ध है। इसके नाम का कोई आधिकारिक विवरण नहीं है, लेकिन पारंपरिक कहावतों के अनुसार सीतापुर को भगवान राम की पत्नी सीता के रूप में जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि तीर्थ यात्रा के दौरान वह भगवान राम के साथ इसी स्थान पर रुकी थीं। बाद में राजा विक्रमादित्य ने सीता की याद में इस शहर की स्थापना की और इस जगह को नाम दिया, सीतापुर। अबुल फज़ल की आइने अकबरी के अनुसार अकबर के शासन काल में इस स्थान को चटयापुर या चित्तियापुर कहा जाता था।
प्राचीन इतिहास के अनुसार यह स्थान मगध के शिशुनाग साम्राज्य में शामिल था। नंद और मौर्यों के पतन के बाद यह क्षेत्र शुंग वंश के अधिकार में आ गया। शुंग शैली की कुछ मिट्टी की मूर्तियाँ सिधौली तहसील में प्राप्त हुई हैं। इसी प्रकार मिश्रिख तहसील के बड़ेसर में भी गुप्तकालीन कुछ छोटी-छोटी मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
नैमिषारण्य का पवित्र स्थान, जो कि गोमती के बाएं तट पर स्थित है, एक तीर्थस्थल है जहाँ महर्षि वेद व्यास ने पुराणों की रचना की थी। उत्तर वैदिक काल में एक विशाल विश्वविद्यालय के चिन्ह मिलते हैं जहाँ 88000 ऋषियों ने शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया था। शौनकजी इस विश्वविद्यालय के कुलपति थे। वनवास के दौरान पांडव नैमिष आये। भगवान राम और सीता ने रावण की मृत्यु का कलंक धोने के लिए इस पवित्र स्थान पर स्नान किया था। ऐसा कहा जाता है कि सीता ने अपनी पवित्रता साबित की और नमिश की पवित्र मिट्टी में समाहित हो गईं।
सीतापुर जिला राजनीतिक दृष्टि से सदैव जागृत रहा। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में इस जिले ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 1857 के दौरान आर्य समाज एवं सेवा समिति ने जिले में अपने संगठन स्थापित किये थे। 1921 में गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में सीतापुर के हजारों लोगों ने भाग लिया। 1925 में गांधी जी सीतापुर आए और लालबाग में स्वतंत्रता आंदोलन में सहयोग की अपील की। कई राष्ट्रीय नेता- मौलाना मोहम्मद अली, पंडित मोतीलाल, पं. जवाहरलाल भी उपस्थित थे।